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परि॑ प्रि॒या दि॒वः क॒विर्वयां॑सि न॒प्त्यो॑र्हि॒तः । सु॒वा॒नो या॑ति क॒विक्र॑तुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pari priyā divaḥ kavir vayāṁsi naptyor hitaḥ | suvāno yāti kavikratuḥ ||

पद पाठ

परि॑ । प्रि॒या । दि॒वः । क॒विः । वयां॑सि । न॒प्त्योः॑ । हि॒तः । सु॒वा॒नः । या॒ति॒ । क॒विऽक्र॑तुः ॥ ९.९.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:9» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:32» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब सौम्यस्वभाव परमात्मा के अन्य गुणों का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कविक्रतुः) सर्वज्ञ (सुवानः) सबको उत्पन्न करनेवाला (नप्त्योः, हितः) जीवात्मा और प्रकृति का हित करनेवाला (कविः) मेधावी (वयांसि) व्याप्तिशील (दिवः, प्रिया) द्युलोक का प्रिय (परि, याति) सर्वत्र व्याप्नोति ॥१॥
भावार्थभाषाः - “न पततीति नप्ती” जिसके स्वरूप का नाश न हो, उसका नाम यहाँ नप्ती हुआ। इन दोनों का परमात्मा हित करनेवाला है अर्थात् प्रकृति को ब्रह्माण्ड की रचना में लगा कर हित करता है और जीव को कर्मफलभोग में लगा कर हित करता है। “वियन्ति व्याप्नुवन्ति इति वयांसि” जो सर्वत्र व्याप्त हो, उसको वयस् कहते हैं और बहुवचन यहाँ ईश्वर के सामर्थ्य के अनन्तत्वबोधन के लिये आया है, तात्पर्य यह निकला कि जो प्रकृति पुरुष का अधिष्ठाता और संसार का निर्माता तथा विधाता है, उसको यहाँ कविक्रतु आदि नामों से वर्णन किया है ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ सौम्यस्वभावस्य परमात्मनोऽन्ये गुणा वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (कविक्रतुः) सर्वज्ञ (सुवानः) सर्वस्योत्पादकः (नप्त्योः हितः) जीवप्रकृत्योर्हितकारकः (कविः) मेधावी (वयांसि) व्याप्तिशीलः (दिवः, प्रिया) द्युलोकप्रियः (परि, याति) सर्वत्र व्याप्नोति ॥१॥